जो यहाँ नहीं हैं वह कहीं नहीं हैं , लेकिन जो कहीं नहीं हैं , वह भी यहीं हैं
पूँजीपति वर्ग ने जहाँ पर भी उसका पलड़ा भारी हुआ, वहाँ सभी सामंती, पितृसत्तात्मक और काव्यात्मक संबंधों का अंत कर दिया। उसने मनुष्य को अपने स्वाभाविक बड़ों के साथ बाँध रखने वाले नाना प्रकार के सामंती संबंधों को निर्ममता से तोड़ डाला, और नग्न स्वार्थ के, नकद पैसे-कोड़ी के हृदय-शून्य व्यवहार के सिवा मनुष्यों के बीच कोई दूसरा संबंध बाकी नहीं रहने दिया। - कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स, कला और समाज (पहल - 10-11 (मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र अंक), पृ.- 6 पर उद्धृत )
पूँजीवाद द्वारा पैदा किया गया यह संकट जो उत्तरोत्तर गंभीर होता चला गया है, के साथ भारतीय समाज की अपनी संकीर्णता एवं विरोधाभास रहा है उनमें दो प्रमुख तत्व हैं - धर्म एवं जाति। धर्म को लेकर भारत के गंगा-जमुनी तहजीब की बात की गई है, इसकी सत्यता के साथ यह भी उतना ही सत्य है कि इस धारा में विक्षोभ पैदा होता रहा है। जब-तब यह सत्ता-अकांक्षा एवं राजनीति के हत्थे चढ़ता रहा है। भारतीय समाज इस संदर्भ में Vulnerable रहा है। मध्यकालीन अनेकानेक संदर्भ हो या आधुनिक युग में स्वतंत्रता के साथ भारत-विभाजन की घटना, यह सब इस बात का उदाहरण है कि धर्म को बड़ी आसानी से सत्ता का हथियार बनाया जाता है। धर्म के मामले में भारतीय समाज में लोक के स्तर पर समरसता एवं सत्ता के स्तर पर विघटन का द्वंद्व चलता रहा है। पिछले दो-ढाई दशक से इसने नए सिरे से सत्ता विमर्श में अपने स्पेस को पुख्ता किया है।
जातिगत विभाजन हिंदुस्तानी समाज की खांटी कोढ़ का खाज है। वर्चस्वशाली सामंती मानसिकता जाति-विभक्त समाज में दर्प के साथ देश के हर संसाधन - प्राकृतिक, मानवीय, ज्ञान को अपनी जागीर समझता रहा है। बीते दशक के सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन द्वारा अब तक सत्ता एवं अवसर के वृत्त से बाहर के लोगों की स्थिति में सकारात्मक परिवर्तन के प्रयास हुए हैं और सत्ता एवं अवसर के वृत्त में सवर्ण वर्चस्व को चुनौती मिली है। इस कारण वर्चस्व एवं अधिकार का, दर्प एवं अस्मिता का नया संघर्ष छिड़ गया है। लेकिन यह संघर्ष निर्णयकारी स्थिति में पहुँचता इससे पूर्व ही संघर्षरत समुदाय के कुछेक सत्ताकांक्षी लोगों के निहित स्वार्थों ने इसे चोट पहुँचाई है। हमारा आज का भारत - मंडल (जाति), कमंडल (धर्म की राजनीति) एवं भूमंडल (ग्लोबलाइजेशन) के इन्हीं संदर्भों के इर्द-गिर्द चक्कर काटते समाज का देश है। मंडल, कमंडल की विडंबना उसे अपनी विरासत एवं विरोधाभास से मिली है तो भूमंडल उस पर लादा गया है। इन ऐतिहासिक घटनाओं-संदर्भों के विभाजक पक्ष से भारतीय सामाजिक प्रक्रिया को क्षति पहुँची है। धर्म एवं जाति ने मानवता के छोटे-छोटे समूह में कैद किया है तो भूमंडलीकरण से उत्पन्न स्थिति ने व्यक्ति को समूह से काटकर अकेला कर दिया। काशीनाथ सिंह का उपन्यास 'काशी का अस्सी' इसी प्रक्रिया की तलाश है।
पिछले दिनों उत्पन्न इन चुनौतियों के साथ भारतीय समाज के साथ जुड़ी हुई एक और विडंबना है - इसका असमान आर्थिक विकास। इसके कारण जो अंधकूप तैयार हुआ है वह प्रतिकूल शक्तियों के प्रसार में सहयोगी बनता है। प्रक्रिया की खामी, सामाजिक विरोधाभास एवं कार्पोरेट मॉडल में पूँजीवाद के नए हमले के बीच अपनी निजी विशिष्टता को खोता हुआ समाज है - काशी का अस्सी। काशी का अस्सी इस बात का उदाहरण है कि विकास-प्रक्रिया से महरूम एवं आर्थिक रूप से अ-राजनीतिक समाज किसी वर्चस्वशाली परिवर्तन की प्रक्रिया में किस प्रकार अपनी हर विशिष्टता से वंचित कर दिया जाता है। इस वंचना की पीठिका स्वयं उसके विरोधाभासों से तैयार होती है।
काशी का अस्सी जो कि स्थूल पाठ में गाली-गलौज एवं परस्पर प्रेम-प्रतिघात भरे भाईचारे की संस्कृति के खत्म होने की कथा कहती है तथा इसके लिए भूमंडलीकरण का चतुर छद्म जिम्मेवार नजर आता है, इससे इनकार न होने के साथ ही इसका सघन पाठ हमें काशीनाथ सिंह की इतिहास-दृष्टि से अवगत कराता है जो इस चरम प्रतिकूलता की स्थिति (अस्सी के उजड़ने) के पीछे अपनी इतिहास-प्रक्रिया (विकास प्रक्रिया) की खामी (भंग में डूबा, आत्मतुष्ट समाज सजग-सचेत-बौद्धिक है पर राजनीतिक नहीं) को भी सामने लाता है। इस उपन्यास को उसकी द्वंद्वात्मक के बगैर नहीं समझा जा सकता है। अगर काशीनाथ सिंह एक ओर भूमंडलीकरण से उत्पन्न अंतहीन लालसा एवं होड़ को सामने रखते हैं तो अस्सी के आत्मघाती ठहराव को भी। यह समाज अपनी सांस्कृतिक समृद्धि एवं आलोचकीय दृष्टिकोण के कारण जीवंत है तो आर्थिक स्तर पर ठिठका हुआ है। उपन्यास की क्राइसिस परिस्थिति के इन दो ध्रुवों के बीच निर्मित होती है। अस्सी पर जहाँ एक और बौद्धिक सक्रियता, परस्परता की उपमा है वहीं पुरोहितों का समाज विकल्पहीन ईश्वरोन्मुखता में जी रहा है - किसी के पास कोई डिग्री नहीं, रोजगार नहीं, नौकरी नहीं, व्यवसाय नहीं, काम नहीं, परलोक सिधारते समय पंडित महाराज ने पत्ता-पोथी लपेटे एक लाल बेठन खोंस दिया बेटे की काँख में - बस! वे तख्त पर बेठन रखे हुए जनेऊ से पीठ खुजा रहे हैं और जजमान का इंतजार कर रहे हैं। फिर भी यह ठसक कि देनेवाला वह, जजमान, भोंसड़ी के क्या देगा? जीवन बिताने के लिए इनके पास ईश्वर की महिमा, बेकारी और भंग की खुमारी है। लेकिन सामंती सामाजिक व्यवस्था से विरासत में प्राप्त जजमानी चुनाव नहीं, विकल्पहीनता की बेबसी है। ऊपर से मस्त दिखाई देने वाले इस समाज के मस्ती के फ्रेमवर्क का विखंडन करने पर उनकी आर्थिक दयनीयता झाँकने लगती है। एक दिन फत्ते गुरू को कहीं से पूरा कोंहड़ा हाथ लग जाता है तो यह पूरे मुहल्ले के रस्क का कारण बन जाता है - मुहल्ला अपने दरवाजों, खिड़कियों, छतों से आँख फाड़े फत्ते गुरु का कोंहड़ा देख रहा है और उनके भाग्य से जल-भुन रहा है। संतोष है तो यह कि आज का दिन फत्ते गुरू का, कल का दिन किसी और गुरू का। कौन जाने हमारा ही हो?
समाज की इस स्थिति के बावजूद सकारात्मक यह है कि इस समाज में विकल्पहीनता की स्थिति से बाहर आने की छटपटाहट है। अवसर मिलते ही वे इस जकड़न को तोड़ते हैं। विदेशियों के आगमन से जब यहाँ के घर होटल, लॉज, पेइंग गेस्ट एकमोडेशन में तदील होने लगते हैं तो परंपरागत धार्मिक जड़ता के शिकार धर्मानंद शास्त्री इसके प्रारंभिक विरोध के बाद कालांतर में इसी में अपनी बेहतरी देखते हैं तथा मंदिर जजमानी एवं शास्त्रीयता की जकड़न से बाहर आने के लिए छटपटाने लगते हैं।
उनकी इस छटपटाहट में लालच एवं उपभोक्तावाद के प्रभाव को देखा जा सकता है, पर जो महत्वपूर्ण है वह है उनका जड़तावादी मूल्य के विरोध में खड़ा होना। वे अपनी पत्नी को समझाते हुए कहते हैं - ...संस्कृत लिखने-पढ़ने का सुख तो भोग लिया तुमने! क्या चाहती हो, लड़के भी घाट पर बैठें! दिन भर पतंग उड़ाएँ? गली में टिल्लों मारें!
विकास प्रक्रिया के किसी भी चरण में सकारात्मक एवं नकारात्मक - दोनों प्रकार के तत्व होते हैं। काशी का अस्सी के स्थूल पाठ तक ही सीमित रहें तो हमें वह आसान निष्कर्ष ही मिल पाएगा। जिनमें ग्लोबलाइजेशन के नकारात्मक प्रभाव का चलताऊ ढंग से अंकन होता है। इसके इतने वर्चस्वशाली होने की प्रक्रिया को नहीं समझ पाएँगे। काशीनाथ सिंह इसके नकारात्मक प्रभाव के अंकन के साथ ही जहाँ जिन अंशों में हमारी परंपरागत संकीर्णता को तोड़ने में सहायक हुई है (हालाँकि वह मुनाफे की प्रक्रिया को साइड इफेक्ट के रूप में ही आई है) उसे भी महत्व देते है। यह स्वयं हमारी खामियों को भी स्पष्ट करती है।
दरअसल काशी का अस्सी जड़ता, मोह एवं नॉस्टेल्जिया का आख्यान नहीं है जैसा कि प्रायः किसी अन्य वर्चस्वशाली संस्कृति से टकराहट के क्रम में स्थानीय संस्कृति की पक्षधरता के क्रम में उभर आता है।
काशी का अस्सी में काशीनाथ सिंह ने स्थानीय सांस्कृतिक विशिष्टता की पक्षधरता के साथ यहाँ के समाज के मिजाज में मौजूद उस बेचैनी को भी स्वर दिया है जो कि परंपरागत जड़ता से निपटने की चाहत में पनप रही है। यह समझ पुरोहित धर्मनाथ शास्त्री में भी है और फक्कड़ बौद्धिक गया सिंह में भी।
चरम आधुनिकता के विकारों से ग्रस्त पश्चिमी समाज के लिए पिछड़े एवं विकासशील देश की सांस्कृतिक विशिष्टता कॉमोडिटी की तरह है, जिसका उपभोग वे मानसिक राहत के लिए करते हैं। पिछड़े एवं विकासशील देशों के कल्चरल कंस्ट्रक्ट में में सकारात्मकता है तो जड़ता एवं बेचैनी भी। सैलानी उत्सुकता इस जड़ता एवं बेचैनी को समझ नहीं पाती। तीसरी दुनिया की जड़ता, जलालत उनके लिए उत्सुकता का विषय है और उसे अचंभे के रूप में देखते हुए विकृत सुख प्राप्त करते हैं। इन दिनों स्लम टूरिज्म का नया शौक पश्चिम में चर्राया है वह कुछ इसी तरह का है। काशी का अस्सी में संस्कृति को उत्पाद के रूप में देखने वाली बारबर बाबा की पत्नी कैथरीन ने योग का व्यवसाय चला रखा है, बड़ी आसानी से यहाँ की व्यवस्था को प्रश्नांकित करते हुए कहती है - वाराणसी इज डाइंग, तो गया सिंह तल्ख टिप्पणी करते हैं - 'तो क्या चाहती हैं आप? गया सिंह का स्वर सहसा ऊँचा हो गया। चाहती हैं मठ और आश्रम राँड़ों से भरे रहें? साँड़ सड़कों और गलियों में जहाँ-तहाँ गोबर करते रहें? साधु-संन्यासी दाढ़ी-दाढ़ा बढ़ाए लोगों को चूतिया बनाते रहें?'
काशी का अस्सी को समझने के लिए इसके स्पेस, अस्सी के विरासत की विशिष्टता एवं विरोधाभास तथा राष्ट्र के उत्पादन की प्रक्रिया में समाज की भूमिका को समझना आवश्यक है। काशी एक हिंदू धार्मिक स्पेस में है और यह लगभग गैर-उत्पादक समाज है। इसके पास मानव संसाधन तो है पर जीवन के लिए आवश्यक भौतिक संसाधन का अभाव है। यह समाज असमान आर्थिक विकास एवं स्वतंत्रता पश्चात की नीतियों की खामी का शिकार है और इसकी अपनी कंडीशनिंग है। इस समाज के पास श्रम की संतुष्टि एवं आर्थिक संबल के बजाए मिथ्या (आध्यात्मिक) संतुष्टि है। लेकिन यह शिक्षा एवं ज्ञान का महत्वपूर्ण केंद्र भी है, जिसकी ऊर्जा एवं तर्क-पद्धति इस समाज के पास है। विरासत से प्राप्त धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्रचुरता है। सामाजिक परस्परता है। दरअसल अस्सी भारतीय विशिष्टताओं और विरोधाभासों का एक समन्वित मॉडल है। इसकी मस्ती एवं फक्कड़पन इस अर्थ में वरेण्य एवं प्रशंसनीय है कि व्यक्ति यहाँ सामाजिक इकाई के रूप में है। देश और समाज के प्रति उसका आलोचनात्मक दृष्टिकोण है। कार्पोरेट लालसा-प्रसार को यह समाज समझ रहा है। काशीनाथ सिंह की पक्षधरता अस्सी के इस स्वरूप के प्रति है। अस्सी का यह स्वरूप मानवता के हक में है। सत्ता के बेलगाम होने से उसकी घोर असहमति है। लेकिन प्रतिरोध एवं सामाजिकता की यह संपदा अस्सी से पलायन कर जाती है। काशी का अस्सी सामाजिक परिवर्तन - सामाजिकता से वैयक्तिकता - का आख्यान है। तो इस आख्यान में उपन्यासकार की आर्थिक दृष्टि भी सक्रिय है। एंगेल्स ने मार्क्सवाद पर लगे इस आरोप का कि वह आर्थिक तत्व पर जरूरत से ज्यादा जोर देता है अन्य कारकों की उपेक्षा करता है, का जवाब देते हुए कहा था कि आर्थिक प्रक्रिया अंततः निर्णायक होती है। उत्तर-आधुनिकता के इस दौर में भी हम देखते हैं सामाजिक-सांस्कृतिक-बौद्धिक विशिष्टताओं के बावजूद अस्सी की परिणति में आर्थिक तत्व की निर्णायक भूमिका है।
काशी का अस्सी में सत्ता के बरक्स लोक है। इस उपन्यास का सौंदर्य एवं संदेश इसके इसी द्वंद्व में है। सत्ता का अभिप्राय यहाँ राजनीतिक सत्ता मात्र से ही नहीं है। राजनीतिक सत्ता सत्ता का एक रूप है। सत्ता के अंतर्गत हर वह संस्था, रुझान, विमर्श शामिल है जो जन-मानस को व्यापक रूप से प्रभावित करता है। उसका समूहीकरण अथवा विभेदीकरण करता है, और परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित, विस्थापित अथवा अपदस्थ करता है। धर्म, जाति, अर्थ-सत्ता के ऐसे ही विभिन्न संस्थान हैं। ये सत्ताएँ कभी खुद राजनीतिक विमर्श का रूप ले लेती है तो कभी राजनीति का हथियार बनती है। पूँजीवाद के आगमन के समय से ही अर्थ हमेशा प्रभावशाली रहा है इधर धर्म एवं जाति नए सिरे से प्रभावशाली हुए हैं। पिछले दो-ढाई दशक के भारत के सामाजिक विकास एवं लोकतंत्र के स्वरूप में आई तदीली को जाति, धर्म एवं अर्थ के प्रभाव के नए संस्करण के साथ ही समझा जा सकता है। काशी का अस्सी इन तत्वों के इस नए स्वरूप का पहचान करता है।
हिंदी में पिछले दिनों के परिवर्तन के विविध संदर्भ एवं उसके प्रभाव को लेकर बहुत सारी रचनाएँ आई हैं। काशी का अस्सी इस मायने में विशिष्ट है कि यहाँ किसी एक समस्या के केंद्र में होने के बजाए समय की पूरी अनुगूँज है। समकालीन बदलाव के निर्णयकारी कारकों की यहाँ संश्लिष्ट अभिव्यक्ति हुई है। पिछले दो-ढाई दशक का हर वह आयाम यहाँ मौजूद है जिसने भारतीय सामाजिक संरचना को प्रभावित किया है।
आजादी के बाद का इतना लंबा दौर बीत जाने के अब यह कहा जा सकता है कि देश की विकास-प्रक्रिया को गति देने में सत्ता एवं प्रतिसत्ता दोनों असफल रही हैं। अपनी असफलता को छिपाने के लिए उसने धर्म एवं जाति के प्रश्न से उछाल दिया है। धर्म जिसका एसेंस मानवता होता है, विघटनकारी सत्ताकारी शक्तियों ने उसे उसके मूल अर्थ से च्युत कर उसे उन्माद एवं राजनीतिक समूहीकरण का हथियार बना दिया है। 'काशी का अस्सी' के अस्सी में जहाँ लोक सत्ता की छलना का प्रतिरोधी है। वहाँ हिंदू धार्मिक केंद्र होने तथा लोगों के हिंदू साधना पद्धति में रचे-बसे होने के बावजूद आम लोगों में दूसरे धर्म या साधना पद्धति के प्रति वह घृणा के तंत्र को समझते हैं। आज जबकि धर्म और सांप्रदायिकता एक-दूसरे से बद्धमूल हो गए हैं, एक-दूसरे के पूरक से नजर आने लगे हैं, अस्सी उसके इस रूप का विरोधी है। सांप्रदायिकता के संदर्भ में असगर अली इंजीनियर ने लिखा है - 'सांप्रदायिकता आधुनिक काल की परिघटना है और इसका मूल कारण राजनीतिक सत्ता या सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी है, न कि धर्म। धर्म इसका मूल कारण नहीं है, लेकिन लोगों को एकत्र करने की क्षमता के कारण धर्म को हथियार के रूप में प्रयोग किया जाता है।' (सांप्रदायिकता एवं सांप्रदायिक दंगे, पृ.- 19) यह प्रक्रिया किस प्रकार कार्य करती है उपन्यास में रामवचन पांड़े के वक्तव्य से स्पष्ट होता है - 'जब डेढ़-दो करोड़ लोग जय श्री राम, जै सियाराम एक साथ गाना शुरू करेंगे तो हमारे न चाहते हुए भी अपने आप हमारे मुँह से निकल पड़ेगा, और फिर कहीं आँसू-गैस, लाठी-चार्ज और गोलियाँ चलनी शुरू हुईं तो सारे रामभक्त हमें भारत की जनता लगने लगेंगे। और रामलला की दया से कहीं दो-चार डंडे हम भी खा गए तो हो गए धर्मनिरपेक्ष!'
रामवचन पांड़े इन तत्वों के उन्मादी चरित्र के साथ ही जनता के वास्तविक समस्या को ओझल करने की प्रवृत्ति की ओर भी इशारा करते हैं - जब पिछले दिनों दाल चौबीस रुपए किलो बिक रही थी तो बीस लाख की आबादी वाले इस शहर में एक भी ऐसा आदमी आपको मिला जो उसके खिलाफ सड़क पर चिल्लाया हो?
एक ओर धर्म का उन्मादी इस्तेमाल है - अयोध्या की घटना वाले दिनों में वर्षों से सब्जी का बिजनेस करने वाले नईम का रोजगार बिगड़ने लगता है, परिवार टूट जाता है - ग्राहक हिंदू होने लगे इस बीच, आलू, भिंडी, करेला, टमाटर, कोंहड़ा (मुहल्ले की सबसे प्यारी सब्जी, पूड़ी प्रेम के कारण), कद्दू, गोभी मुसलमान हो गए। घाटे पर घाटे। रिश्ते में खटास आई। भाई सलीम-अलीम छोड़ चले नईम को। इन दिनों धार्मिक आतंक इस कदर होता है कि नईम की दुकान पर भगवा ध्वज लहरा रहा है, पर स्वाभाविक रूप से इन तत्वों से अपनी एकता नहीं होने के बावजूद वह उसे हटा नहीं पाता। अयोध्या की घटना ने परस्पर अविश्वास को उत्पन्न ही नहीं किया उसे गहरा भी कर दिया।
जन्मना धर्म व्यक्ति की पहचान बन गया और इसी फ्रेमवर्क में उस पर विश्वास-अविश्वास किया जाने लगा। यह स्थिति अस्सी जैसे जगहों में बनी। इस पीड़ा को अभिव्यक्त करते हुए नईम कहता है - मैं वोट उसे ही देना चाहता हूँ जिसे मुहल्ला देना चाहता है। लेकिन यह भी जानता हूँ कि मैं उसे वोट दे भी दूँ तब भी कोई विश्वास नहीं करेगा। तकलीफ बस इसी से होती है। लेकिन उन्माद का यह प्रसार सर्वथा वर्चस्वकारी नहीं है। काशीनाथ सिंह आम लोगों के प्रतिरोध में आस्था रखते हैं, उसे पहचानते हैं एवं उसे रेखांकित करते हैं। अगर लोग उन्मादग्रस्त हुए हैं, सन् 52 से ही केदार की दुकान पर लहराने वाले लाल झंडे का स्थान भगवा ध्वज ने ले लिया है तो अब भी साइकिल का पंचर ठीक करने वाले गुलाब मिस्त्री की दुकान पर लाल झंडा लहरा रहा है। गुलाब मिस्त्री का यह प्रतिरोध नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता शासन की बंदूक की याद दिलाती है। समाज का एक तबका उन्मादग्रस्त हुआ है पर ऐसे भी लोग हैं जो इसके विरोध में है। इसका अद्भुत उदाहरण हैं रामजी राय। रामजी राय धार्मिक व्यक्ति हैं और भाजपा में हैं पर वे भाजपा ब्रांड के नहीं है। उनके व्यवहार से लगता है मानों वे विघटनकारी तत्व के अंदर घुसकर उसे मिटाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। एक बार जब शैलेंद्र उनसे पूछता है कि आप भाजपा में कैसे? तो वे कहते हैं - मेरा पैर ही ऐसा है डाक् साहब! कि जिस पार्टी में गया उसका 'राम नाम सत्य' हो गया। पहले कांग्रेस में गया, उसका देख लीजिए, उसके बाद जनता दल में गया, उसे भी देख लीजिए, अब इसमें आया हूँ, थोड़ा इंतजार कर लीजिए! इस पर शैलेंद्र पूछते हैं कि आप उसी में है और उसी का अनभल चाहते हैं तो रामजी राय जवाब देते हैं वह 'अस्सी' का मूल्य है। वे कहते हैं जानते हैं यह लुंगी किसकी दी हुई है जो पहने हूँ? सुलेमान की। बुनकर था! मेरा दोस्त था! बजरडीहा वाले दंगे में उसे मार डाला सालों ने! तो यह कैसे भूल सकता हूँ मैं?
काशी का अस्सी बीते दो-ढाई दशकों में भारत में हुए सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक परिवर्तन की दास्तान है। यह ऐसा दौर है जब राजनीतिक व्यवस्था पूरी तरह अविश्वसनीय हो गई है। उसने हर स्तर पर सकारात्मक को छोड़कर विघटन एवं फरेब को अपना लिया है। इसके द्वारा प्रसारित वैमनस्य ने पूरे समुदाय को अपने गिरफ्त में ले लिया है। परस्पर गहरा अविश्वास है। अविश्वास के कारक विभिन्न रूपों में अपना पाँव फैला रहा है - कहीं वह धर्म के रूप में है कहीं जाति के रूप में। काशी का अस्सी इस विडंबनात्मक स्थिति की दास्तान है। जातिगत-धर्मगत वैमनस्य की भयावहता पर टिप्पणी करते हुए उपन्यास में रामवचन पांड़े कहते हैं - आप यहाँ बैठे हुए हैं, कौन जाने आपकी सीट के नीचे बम रखा हो, आप यादव के समर्थन में बोलिए, बाभन मार देगा, बाभन के समर्थन में बोलिए, यादव मार सकता है, आप दाढ़ी रखे हुए हैं, हो सकता है मदनपुरा में या नई सड़क से गुजरते हुए बच जाएँ, मगर हिंदू मुहल्ले से भी बच निकलेंगे - इसकी कोई गारंटी नहीं है। ...देखिए, उस पट्टी पर केसरिया पट्टा बाँधे चीखते-चिल्लाते लोगों का जुनून!
काशी का अस्सी अपने समय की प्रतिकूलताओं की गहन आलोचना है। इस आलोचना के केंद्र में राजनीतिक व्यवस्था की कारगुजारियाँ प्रमुख रूप से हैं। पिछले दिनों में राजनीतिक व्यवस्था, विचार का बहुत ज्यादा पतन हुआ है। इस राजनीतिक दल विचारधारा, सिद्धांत एवं आदर्श के छल के साथ अपने को स्थापित करती है तथा लोगों को झाँसा देती है। उनकी वास्तविकता यह है कि उनका सारा कार्य-कलाप सत्ता-सुख के लिए होता है। वे जिस योजना के बल पर स्थापित होते हैं, सत्ता-सुख की प्राप्ति के बाद उससे उनका कोई वास्ता नहीं रह जाता। सिद्धांत और आदर्श के इस फरेब पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी करते हुए उपन्यास में हरिद्वार कहते हैं -
आदर्श बालपोथी की चीज है। वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने और पुरस्कार जीतने की। आदर्श की चिंता की होती कृष्ण ने तो अर्जुन भी मारा जाता और भीम भी। पांडव साफ हो गए होते। आदर्श तो है पतिव्रता का लेकिन देखो तो संभोग हर किसी से। कोई ऐसी देवी है जिसका संबंध पति के सिवा किसी और से न रहा हो? आदर्श उच्चतम रखो लेकिन जियो निम्नतम - यही परंपरा रही है अपनी!
...सिद्धांत सोने का गहना है। रोज-रोज पहनने की चीज नहीं। शादी-ब्याह तीज-त्योहार में पहन लिया बस! सिद्धांत की बात साल में एक-आध बार कर ली, कर ली, बाकी अपनी पालिटिक्स करो!
राजनीति में आदर्श एवं सिद्धांत के प्रति इस तरह की धारणा रखने वाले लोग धार्मिक पहचान, जातिगत पहचान को उभारकर अपनी राजनीति करते रहे हैं। आज का समाज बहुस्तरीय विभाजन वाला समाज है। इसमें आर्थिक भेद हैं, धार्मिक भेद हैं और जातीय भेद हैं। मंडल आयोग का आना पिछले वर्षों का एक प्रमुख संदर्भ हैं। मंडल द्वारा एक सकारात्मकता की तलाश थी, लेकिन राजनीतिज्ञों ने इसका कुपाठ किया तथा इसका दुरुपयोग उन्होंने समाज को जाति विभक्त करने में किया। जातिगत अस्मिता को उभारकर नेताओं ने सत्ता प्राप्त की और जातियों को अपना बंधक बना लिया। अलग-अलग जातियों अलग-अलग नेताओं की नीति जागीर बनती चली गई या फिर उन्होंने ऐसा ही समझा - ...रत्नाकर पांड़े को बाभनों के बीच जाने की जरूरत नहीं है, अवधेश राय भूमिकारों के बीच क्यों जाएँगे? वे यह मानकर चल रहे हैं कि ये उन्हीं के वोट हैं। जाएँ-न-जाएँ - झक मारकर दें और जहाँ जाएँगे यह मानकर जाएँगे कि जाना न जाना बराबर है। यादव बाभन को क्यों देगा या बाभन यादव को क्यों देगा?
जाति की राजनीति में एक और विडंबनापूर्ण स्थिति यह बनी कि जो लोग जाति की राजनीति का नेता बने उन्होंने कालांतर में अपने को जाति के पर्याय एवं प्रतीक के रूप में प्रचारित स्थापित किया। प्रतीकीकरण की इस प्रक्रिया में समूह छोटा होता गया नेता बड़ा। नेता इनका प्रयोग वोट बैंक एवं आर्थिक हित के लिए करने लगे। उनके द्वारा नामजद व्यक्ति उस जाति-समूह के द्वारा सत्ता की सीढ़ी प्राप्त करने लगे। जाति की राजनीति के स्वरूप पर टिप्पणी करते हुए उपन्यास में राजकिशोर कहते हैं - यह है जाति का नया चेहरा। मुलायम जिसे टिकट दें, वह अहिर, कांसीराम जिसे टिकट दें, वह चमार, नीतिश कुमार जिसे टिकट दें, वही कुर्मी, ठाकुर, बाभन, बनिया, लाला चाहे जो हो। कांसीराम का टिकट मिला नहीं कि चमार हुआ। बनारस से अवधेश राय लड़ रहे हैं बसपा से और हरिजन बस्तियों में जाकर देख लीजिए। अरे इसे छोड़िए, अपने यहाँ चंदौली में ही देखिए। कांग्रेस में श्यामलाल यादव है, और मुलायम की मुहर के साथ सपा से जयसवाल। अब यादव श्यामलाल नहीं रह गए, यादव है जवाहर जयसवाल...
लेकिन इस वैमनस्य, कटुता, जातिगत विभाजन के रहने हुए भी अस्सी सामूहिकता को खत्म नहीं होने देता। इसी अर्थ में अस्सी की जुटान स्वयं अपने ही समाज के भेद-भाव के सामने प्रतिरोधी रूप में है। काशीनाथ सिंह लिखते हैं - ...न कोई सिंह, न पांड़े, न जादो, न राम! सब गुरु! जो पैदा भया, वह भी गुरु तो मरा वह भी गुरु! वर्गहीन समाज का सबसे बड़ा जनतंत्र है यह, गिरिजेश राय (भाजपा), नारायण मिश्र (भाजपा), अंबिका सिंह (कभी कांग्रेस, अभी जद) तीनों की दोस्ती पिछले तीस सालों से कायम है और आने वाली कई पीढ़ियों तक इसके बने रहने के आसार। अगर अस्सी को किसी अर्थ में बचाए जाने की जरूरत है तो इसी अर्थ में। विघटन के दौर में अस्सी की परस्परता एवं प्रतिरोधी वृत्ति (जब तक वह मौजूद था) एक मूल्य है। अस्सी के इस सकारात्मकता पर एक और देशी विद्रूपताओं - धर्म, जाति का आक्रमण होता है वहीं इसे मिटाने के लिए अंतरराष्ट्रीय आर्थिक शक्तियाँ एवं उसकी अनुचर संस्कृति इसे खत्म करने के लिए सक्रिय हो जाती है। अस्सी के ऊपर संकट तब गहरा होता है जब सर्वथा नवीन किस्म की चुनौती से उसका सामना होता है। देशी विद्रूपताओं का उसके पास तोड़ है पर कार्पोरेट-तकनीकी-पश्चिमी सांस्कृतिक शैली से मुकाबले की कोई युक्ति उसके पास नहीं है। वह हतप्रभ होकर पश्चिमी सांस्कृतिक मूल्य के ब्लैक होल में समा जाता है।
इस बिंदु पर उपन्यासकार की इतिहास-दृष्टि एवं संदेश को समझने की आवश्यकता है। यह समाज धार्मिक-जातिगत प्रश्नों के प्रति सचेत हैं, परंतु आर्थिक प्रक्रिया के प्रति यहाँ उदासीनता है। जब आर्थिक-प्रक्रिया संकट के रूप में दस्तक देता है यह गाफिल समाज उसे झेल नहीं पाता है।
देशी सत्ताकांक्षी शक्तियाँ-सत्ता वर्ग या प्रतिसत्ता अर्थ प्राप्त करने के लिए लोगों का भावनात्मक शोषण करती हैं, उसके कमजोर पक्ष को अपना हथियार बनाती हैं तो विदेशी शक्तियों ने अर्थ के जोर पर यहाँ की सत्ता को बंधक बनाया है तथा अपने सांस्कृतिक पैटर्न को आरोपित कर स्थानीय विशिष्टता को खत्म कर रहा है। यह कम विस्मयकारी नहीं है कि अस्सी (प्रकारांतर से भारत) की सामूहिकता पर दोहरा आक्रमण होता है - विदेशी आर्थिक शक्तियाँ इस पर आक्रमण तो करती ही है देशी शुद्धतावादी शक्तियाँ भी इसमें शामिल है। आज जब आयातित उत्तर-आधुनिकता पश्चिमी ब्रांड के पापुलर कल्चर की बात कर रहा है इस उपन्यास का देसी पॉपुलर कल्चर कहीं ज्यादा सकारात्मक रूप में हमारे सामने आता है और भारतीय समाज में उसकी भूमिका भी प्रतीत होती है। यह देसी पॉप यहाँ की लोक कलाओं, संगीत तथा मनोरंजन की अन्य शैलियों में मौजूँ है। यह अपने स्वरूप में ही सामूहिकता-परस्परता का पक्षधर एवं निर्माणकर्ता है और सत्ता की जनविमुखता उसे विचलन पर भी उसकी आलोचनात्मक नजर होती है। अस्सी पर हुए बिरहा-दंगल में इसे देखा जा सकता है। यह पॉप उपभोक्तावादी कार्पोरेट न होकर प्रतिरोधी है, चूँकि इसमें सत्ता की आलोचना है, इस कारण देशी-विदेशी दोनों शक्तियाँ इसका विरोध करती है। उपन्यासकार लिखता है - भारतीय संस्कृति के भाजपाई चरवाहों ने अस्सी-परंपरा के रखवालों से कहा कि होली का यह कवि समेलन न होगा। अश्लील है, गंदा है, फूहड़ है। इसे करना हो तो शहर से बाहर जाओ। गंगा के उस पार, रेती पर! जहाँ कोई न सुने! अगर हुआ, तो गोली चल जाएगी, लाशें बिछ जाएँगी, आदि-आदि। लेकिन इस धमकी का कारण क्या है - लिट्टे, खालिस्तान, उग्रवाद, रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय कोई समस्या नहीं, कोई राष्ट्रीय-अराष्ट्रीय पार्टी नहीं जो होली की गालियों के प्रक्षेपास्त्रों की जद के बाहर हो!
आर्थिक वर्चस्वकारी शक्तियाँ अपने लिए जमीन तैयार करने के उद्देश्य से अपनी आक्रामक सांस्कृतिक पैटर्न का सहारा लेती हैं। इसका प्रभाव बहुत गहरे स्तर पर होता है। उसका आक्रमण स्थानीय विशिष्टताओं-लोक-संस्कृति, कला, बोली-बानी, परस्परता आदि पर होता है। उनकी तकनीकी कुशलता इसके लिए उनका सहयोगी बनती है। आज हमारे नृत्य, संगीत,कलाएँ हमारे सामाजिक वृत्त से बाहर होते जा रहे हैं। वह सत्ता-संबद्ध अभिजन तक सीमित होता जा रहा है। देशज स्पंदन के अभाव एवं पाश्चात्य दृष्टि के प्रभाव के कारण वह बहुत छोटे वर्ग के अंदर उत्पादित संप्रेषित होता है। भारत या अन्य विकासशील देश में कला-संगीत के स्तर पर जो वैक्यूम बना है वह कार्पोरेट, भौतिक-सांस्कृतिक उत्पाद के अनुकूल है। लोक संस्कृति का पतन वर्चस्वशाली शक्तियों के लिए फायदेमंद होता है। काशी का अस्सी इस प्रक्रिया को उद्घाटित करता है।
इस उपन्यास में काशीनाथ सिंह समकालीन वैश्विक आर्थिक-प्रक्रिया की प्रभाव-व्यापकता को सामने लाते हैं। इस क्रम में हमें सर्वथा नवीन प्रवृत्ति देखने को मिलती है। यहाँ उन्नत आर्थिक राष्ट्र द्वारा लक्षित विकासशील राष्ट्र का हर संभव दोहन है। उन्नत राष्ट्र अपने हर अपशिष्ट को पिछड़े एवं विकासशील राष्ट्र पर थोप रहा है। उसका आक्रमण दोहरा है। काशी का अस्सी की एक विशिष्टता उपन्यासकार की विश्व-दृष्टि है जो कार्पोरेट प्रसार को लाभ-हानि की प्रक्रिया मात्र में नहीं देखते हैं। लाभ-हानि के सरल गणित के साथ विकसित देश की आतंरिक समस्याएँ - चाहे वह बेरोजगारी हो भोग के नए अवसर की तलाश - भारत जैसे विकासशील देश को डॉलर के एवज में ढोना पड़ता है जिसके साथ ही आयातित होती है - चरस, हेरोइन, गांजा, वियाग्रा, पेनग्रा की भोगवादी एवं अकेलेपन की संस्कृति। पश्चिमी समाज सांस्कृतिक कुतुहल के साथ आता है और अपनी विकृति थोप जाता है। गुरु में दिखाई देती अनुकूलता भविष्य के खोखलेपन की भूमिका तैयार कर रही होती है। उपन्यास में गया सिंह कहते हैं - वह शुरू में ऐसे ही किसी मुल्क को चाटना शुरू करता है जैसे गाय बछड़े को चाटती है - प्यार के साथ! बाद में जब चमड़ी छिलने लगती है, खाल उधड़ने लगती है, दर्द शुरू हो जाता है, जीभ पर काँटे उभरते दिखाई पड़ने लगते हैं, जबड़े चलने की आवाज सुनाई पड़ती है तब पता चलता है कि यह जीभ गाय की नहीं, किसी और जानवर की है। और क्या समझते हो, जो देखते-देखते देश का देश चबा गया हो और उसमें भी सोवियत रूस जैसा देश - उसके लिए नगर का मुहल्ला क्या चीज है?
गया सिंह की यह टिप्पणी भूमंडलीकरण के वास्तविक चरित्र को सामने रखती है। भूमंडलीकरण का स्वरूप अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक प्रक्रिया न होकर पश्चिमी उत्पाद, संस्कृति एवं मूल्य के वर्चस्व की प्रक्रिया है। वह पूरी दुनिया को अपना चारागाह बनाता है। उत्पाद को बेचने के साथ स्थानीय विशिष्टताओं का उपभोग कॉमेडिटी की तरह करता है। और यह सब कुछ एकतरफा प्रक्रिया है। पश्चिमी जिस प्रकार से पूरब में अपने लिए अवसर सृजित कर रहा है ठीक वही पूरब के लिए पश्चिम में नहीं हो रहा है। यहाँ की आर्थिक हीनता उनकी हर ज्यादती को चुपचाप शिरोधार्य करने को बेबस है। काशी का अस्सी में गया सिंह कहते हैं - उन्हें जितनी बार आना-जाना हो - आएँ-जाएँ, जब तक रहना हो, तब तक रहें, लेकिन हम? है हमारी हैसियत है एक बार भी अमेरिका जाने की? हमारा घर उनका घर है लेकिन उनका घर उन्हीं का घर है, हमारा-तुम्हारा नहीं। ...अभी क्या देख रहे हो, थोड़े दिन बाद ही ये बोलेंगे - अस्सी जर्जर हो रहा है, ढह रहा है, मर रहा है, हमें दे दो तो नया कर दें - एकदम चमचम! कल बनारस को चमकाएँगे, परसों दिल्ली को ठीक करेंगे, नरसों पूरे देश को ही गोद ले लेंगे और झुलाएँगे-खेलाएँगे अपनी गोद में! यह बाद में पता चलेगा कि हम किसी गोद में हैं - जसोदा मइया की कि पूतना की?
विकसित देश एवं कार्पोरेट जगत विकासशील देश की पहचान राष्ट्र के रूप में न करके बाजार के रूप में करते हैं और साथ ही अपने आर्थिक संकट एवं अन्य समस्याओं को विकासशील देश पर आरोपित करने का प्रयास करते हैं। भारत में विदेशियों के आगमन के पीछे अब तक की यह धारणा रही है कि वे हमारी सांस्कृतिक खासियत के आकर्षण में बँधकर आते हैं। बनारस जैसी जगहों में उनका प्रवास यहाँ की धार्मिक-सांस्कृतिक पद्धति पर रीझने एवं उसे अपनाने के कारण है। इस धारणा से हटकर काशीनाथ सिंह इसके पीछे की आर्थिक-प्रक्रिया को उद्घाटित करते हैं। दरअसल यह पश्चिमी देशों की बेरोजगारी है जो वहाँ के युवाओं को भारत जैसे देश में धकेलती है एवं पनाहगाह बनाने को बाध्य करती है। उन्हें जो बेरोजगारी भत्ता मिलता है उससे वे अपने देश में बसर नहीं कर सकते हैं, जबकि भारत जैसे विकासशील देश में वह राशि पर्याप्त होती है और उसमें आराम से रह सकते हैं। बनारस में यही फेनोमेना चल रहा है। उनके उच्छिष्ट बनारस में कुछ आर्थिक बेहतरी (बहुत थोड़े अंश में) ला रहे हैं, लेकिन बदले में वे अपने मूल्य भी फैला रहे हैं।
सामूहिकता को खत्म करना, राष्ट्र-राज्य को कमजोर बनाना तथा पारिवारिक मूल्य को नुकसान पहुँचाना पश्चिमी मॉडल के भूमंडलीकरण की खास विशेषता है। सामूहिकता वस्तुगत निर्भरता को खत्म करती है तथा किसी भी जनविरोधी तंत्र को चुनौती देती है। वह उसे उच्छृंखल नहीं होने देती, मनमानी करने से रोकती है। बाजार का इस बात से विरोध है। एक ओर तो वह सत्ता-तंत्र को अपने हितानुकूल बनाना चाहता है, दूसरी ओर लोगों की सामूहिकता से काटकर वस्तु-आकर्षण एवं यंत्र-निर्भरता में जकड़ना चाहता है, इसलिए सामूहिकता जिस प्रक्रिया में पनपती है, फलती-फूलती है कार्पोरेट शक्तियाँ वहीं प्रहार करती हैं। पहले सूचना एवं मनोरंजन सार्वजनिक स्पेस में था, जहाँ सामूहिकता के लिए अवसर था। बाजार में सूचना एवं मनोरंजन को तकनीकबद्ध कर उसे लोगों के ड्राइंग रूप में रूप उपलब्ध कराकर उनकी गतिविधियों को सीमित कर दिया। इस युक्ति के द्वारा कार्पोरेट शक्ति न सिर्फ प्रतिरोध को मिटा रहा है, बल्कि लोकतंत्र को भी पंगु बना रहा है। काशी का अस्सी एक औपन्यासिक कृति के रूप में इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि वह दरवेश हुई इन सर्वथा नवीन चुनौतियों को सामने लाती है।
कार्पोरेट मॉडल के बाजार का लक्ष्य सिर्फ और सिर्फ मुनाफा है। जैसा कि बाजार के संबंध में परंपरागत धारणा रही है कि वह प्रतिद्वंद्विता को बढ़ावा देकर मूल्य को वाजिब एवं गुणवत्ता को उच्चस्तरीय बनाने में, सहायक होती है, भूमंडलीकरण के मॉडल में बाजार इस भूमिका को छोड़ चुका है। आज बाजार की यह भूमिका जिन अंशों में शेष बची दिखाई देती है वह उसकी स्वरूपगत मजबूरी है। अन्यथा वह अपने नए अवतार में प्रतिद्वंद्विता के माध्यम से गुणवत्ता को बढ़ाने का काम नहीं करती, बल्कि अपनी आक्रामक शक्ति के माध्यम से अपने सामने प्रस्तुत किसी भी चुनौती को खत्म करती है। उसका उद्देश्य एकमात्र अपनी अनिवार्यता को स्थापित करना होता है। इसी उद्देश्य से वह लक्षित राष्ट्र अथवा समुदाय का सांस्कृतिक अनुकूलन करता है तथा अपने अनुकूल जीवनशैली आरोपित करता है। चीजों के लिए अंतहीन लालसा जगाना उसकी रणनीति है - ...बाजार वह नहीं है जो सड़क पर है, दुकान में है, नुक्कड़ पर है, शोकेस में है। बाजार वह है जो तुम्हारे दरवाजे पर है, पोर्टिको में है, ड्राइंगरूम में है, बेडरूम में है, आलमारी में है, किचेन में है, टायलेट में है और यही क्यों तुम्हारे बदन पर है, सिर के बालों से लेकर पैरों के नाखून तक है। ऐसा कि जो तुम्हारे घर जाए या तुम्हें देखें, उनकी लार टपकने लगे, उसकी नींद और उसका चैन छिन जाए, तड़प उठे कि यह चीज, जो तुम्हारे पास है, उसके पास सुबह नहीं तो शाम तक आ जाए। और जब तक न आए जब तक न खाना अच्छा लगे, न पीना, न जीना।
समकालीन वैश्विक आर्थिक-प्रक्रिया के इस स्वरूप के पहचान के कारण काशी का अस्सी समकालीन अन्य रचना से पृथक एवं विशिष्ट है। आज राष्ट्र-राज्य किस कदर कमजोर हो रहा है वह उपन्यास की उस घटना से पता चलता है जिसमें उद्योग जगत प्राकृतिक संसाधन का सौदा कर रहा है। वजीर जब जनता की बात करता है तो ठंड का इजारेदार सेठ वजीर पर भड़क उठता है - जनता-जनता क्या करते हो साहब! यह कोई 'प्रेस कान्फ्रेंस' है? जनता करना हो तो रामलीला मैदान में जाओ, वोट क्लब पर जाओ, लाल किला के मैदान में जाओ। लोकसभा में तो करते ही रहते हो। फालतू का समय तुम्हारे पास होगा, हमारे पास कहाँ है? शर्तें मंजूर हो तो ठीक, नहीं तो जाओ मध्यावधि चुनाव की तैयारी करो। उसी में पता चल जाएगा कि जनता कि फिकर किसे ज्यादा है हमें या तुम्हें? ठंड के इजारेदार द्वारा कही गई ये बातें जहाँ व्यापारिक जगत के वर्चस्व एवं सरकार की दयनीयता दर्शाता है, वहीं सभा एवं मंच से होने वाले फरेब को भी।
काशी का अस्सी सूचना एवं मनोरंजन के माध्यम की बदलती भूमिका की भी आलोचना करता है। यह ऐतिहासिक उलट-फेर है। जिस माध्यम का उपयोग लोगों को शिक्षित करने, सूचना संपन्नता एवं स्वस्थ मनोरंजन के लिए होना चाहिए था, वह इसके ठीक विपरीत कार्पोरेट हित में प्रतिरोध को शोषित करने का कार्य कर रहा है। काशी का अस्सी में घरों में टीवी आ गया है। वहाँ हर वय के लोगों को उलझाए रखने के लिए कार्यक्रम चल रहा है। लोग अपने घरों तक सीमित हो गए। गया सिंह उपन्यास में टीवी के चरित्र की पहचान करते हुए कहते हैं - गुरू! मैंने पढ़ ली टीवी के पीछे की भाषा। बताएँ क्या लिखा है? यह एक अभियान है हमारी हँसी और मस्ती के खिलाफ। लोगों की रुचियों की कंडीशनिंग जिस प्रकार हो रहा है तथा उसे जिस प्रकार यंत्र निर्भर बनाया जा रहा है उसी की ऊपज है उपन्यास की यह चिंता कि एक दिन हँसी खो जाएगी। यंत्र निर्भरता लोगों को पंगु-सा बना देगा। तन्नी गुरु कहते हैं ...कौशिक देखो, टाँगें भी गायब हो जाएँगी इनसान की एक न एक दिन। कोई चलना चाहता है पैदल? कौन वक्त जाया करे पैदल चलने में? तो जब इस्तेमाल ही नहीं तो क्यों रहे टाँगे? ...एक ब एक तो होता नहीं, झड़ने में समय लगेगा, लेकिन मैं ऐसी दुनिया देख रहा हूँ जिसमें हर आदमी सड़क पर, बाजार में, दतर में, अपने कमरे में पेंगुइन की तरह डुग-डुग चल रहा है। कैसी लगेगी ऐसी दुनिया-घिसे पैरों वाली?
कार्पोरेट बाजार हर कुछ को मुनाफे में बदल देना चाहता है। वह जीवन शैली के नए मानदंड गढ़ता है तथा विज्ञान के माध्यम से उसे जरूरत के रूप में ढाल देता है। लड़की के लिए क्यूट होना जरूरी है और इसके लिए यूटी पार्लर है। स्त्रियों के किचेन को झंझट बताकर फॉस्ट फूड, रेस्त्राँ का धंधा है। विज्ञानी संस्कृति उत्पादन-प्रक्रिया-आर्थिक-प्रक्रिया में सृजन की जगह सुविधा भोग की मानसिकता तैयार करता है -
- अरे सुनिए तो। जस्ते के भगौने में दाल भी नहीं चुरती और भात या तो मड़गिल्ला रह जाता है या कच्चा। 'प्रेस्टीज कुकर' क्यों नहीं ले आते, सस्ता भी होता है और अच्छा भी।
(जो बीवी से करे प्यार, वह प्रेस्टीज से कैसे करे इनकार?)
- अब के जमाने में राख और उबसन कौन इस्तेमाल करता है जी?
'वाशिंग पाउडर निरमा' क्यों नहीं लाते?
- बहरे हो क्या, सुनते नहीं हो ललिताजी क्या कहती है?
'सर्फ' ले आओ। सर्फ खरीदने में ही समझदारी है।
- यह कौन सी साबुन ले आए? यह भी कोई लगाता है आज? बद्री साव की दुकान पर दोनों साबुन देखे थे - हेमामालिनी वाला भी और रेखा वाला भी। जाओ, इसे वापस कर आओ।
यहाँ ध्यान देने की जरूरत है उपभोक्तावादी संस्कृति जिन चीजों को आवश्यक बता रहा है वह कोई नया सृजन नहीं है, चतुर तराश भर है। इस शैली में चीजों की ब्रांड के रूप में तैयार करना तथा ब्रांड को स्टेटस सिंबल के रूप में स्थापित कर मुनाफा कमाना है। इस प्रकार एक प्रतीकात्मक मूल्य तैयार किया जाता है एवं उसे भुनाया जाता है -
बाहर का पानी गंदा, बोतल का पानी साफ
बाहर की हवा मैली, डिबे की हवा साफ
बाहर की धूप पस्त, अंदर की मस्त
बाहर की ठंड अंडबंड, भीतर की चाक चौबंद
नदी की गंगा जहर, बोतल की पेप्सी लहर
उपभोक्तावादी मूल्य भोग को तरजीह देता है एवं संबंधों को क्षति पहुँचाता है। कन्नी गुरु अपनी माँ को हर सुविधा दे रहा है पर उसे सर्वेंट क्वाटर में रहने के लिए भेज दिया है। उसे पिता तन्नी गुरु घर छोड़कर चल देते हैं। कालांतर में जब दुनिया से हँसी खो चुकी है, तन्नी गुरु को हँसते हुए पाए जाने पर इनाम घोषित होता है तो बेटा-बेटी - कन्नी और उनकी पत्नी उसे पाने को बेचैन हो जाते हैं। यह अलग बात है कि तन्नी मिलते भी है तो सर कटा। दरअसल उपभोक्तावादी होड़ से निर्मित यह पूरी स्थिति ऐसे समाज की निर्मित कर रहा है जिसमें लोग एक-दूसरे को जानते तक नहीं, नितांत अपने तक सीमित हो रहे है, नकद पैसे-कौड़ी के हृदय-शून्य व्यवहार के सिवा मनुष्यों के बीच कोई दूसरा संबंध नहीं बचा। अस्सी को अपदस्थ कर बना तुलसीनगर ऐसा ही समाज है। कदाचित आज की दुनिया का लघु मॉडल... क्या कहना तुलसीनगर का अब न वहाँ आलसी थे, न निठल्ले, न निकम्मे। सब व्यस्त, सब परेशान। कोई किसी को नहीं जानता, कोई किसी को नहीं पहचानता। किसी को इतनी फुर्सत ही नहीं कि दूसरे को पहचाने। पूछिए, डॉक्टर गया सिंह कहाँ रहते हैं? तो, कौन गया, क्यों गया, कैसे गया, कहाँ गया? ...घर में कत्ल हो जाए, ऊपर या नीचे वाले को चार दिन बाद लाश की बदबू से पता चलेगा। यही नहीं, आपके घर में घुस आए चोर, आप मचाएँ शोर - अगल-बगल के पड़ोसियों की बात छोड़िए, ऊपर या नीचे वाला ही अपने दरवाजे कसकर बंद कर लेगा कि कहीं उसके घर में न चला आए। आप मचाते रहिए, शोर - धरो! पकड़ो! मारो!
पिछला दो-ढाई दशक भारतीय राजनीतिक-आर्थिक-सामजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में बड़े उलट-फेर का समय है। इस दौर में हर स्तर पर युगांतरकारी परिवर्तन हुए, इस क्रम में भारतीय सामाजिक संरचना सदा के लिए बदल गई। पश्चिम के सामने भारत की स्थिति जिस पूर्व के रूप में थी, उसके इस स्थिति का ह्रास हुआ है और अब उसका भी पश्चिमीकरण हो गया है। काशीनाथ सिंह का यह उपन्यास जड़ता एवं परिवर्तन दोनों को देखता है। उपन्यास उस प्रक्रिया की तह में जाता है जिसमें युगों की सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना को सर्वथा नवीन सांस्कृतिक-आर्थिक संरचना में बदल देती है। ऊपरी स्तर पर यह तत्कालिक लगने वाली परिघटना इतनी तत्कालिक नहीं है। ऐतिहासिक प्रक्रिया में तैयार होती इसकी भूमिका आर्थिक स्तर पर रणनीतिक असफलता, सामाजिक स्तर पर विलगाव के अनेक स्तर पर नियंताओं की लोलुपता ने इसे संभव किया। समस्या एवं बदलाव को सरल कार्य-कारण संबंध एवं तात्कालिकता में बद्ध करने की बजाए अपेक्षाकृत बड़े कैनवास पर भारतीय एवं वैश्विक बदलाव तथा संकट के संदर्भ में संश्लिष्ट अभिव्यक्ति इसे महत्वपूर्ण बनाती है।
काशी का अस्सी कथ्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है तो शिल्पगत प्रयोग की दृष्टि से भी। बड़े सामाजिक परिवर्तन के साथ कथ्य तो बदला ही है, रूप भी बदलता है। कंटेंट के साथ फॉर्म का यह अनिवार्य रिश्ता है। साहित्य की पूरी परंपरा में विधा, शिल्प एवं भाषा में हुए परिवर्तन में इस रिश्ते को देखा जा सकता है। समाज में बदलाव की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है, लेकिन जब बड़े परिवर्तन होते हैं तब चली आ रही संरचना में तोड़-फोड़ होता है। काशी का अस्सी उस संकट की उपज है जिसमें व्यक्ति ज्यादा से ज्यादा हीन और प्रोडक्ट महत्वपूर्ण हो रहा है। इस उपन्यास के कुछ अंश संस्मरण के रूप में प्रकाशित हुए थे और 'कौन ठगवा नगरिया लूटल हो' कहानी के रूप में। अब यह पूरा उपन्यास रूप में है। दरअसल अस्सी के साथ जो घट रहा है वह अस्सी की पीड़ा ही नहीं लगभग पूरे भारत की और उससे भी आगे विकासशील देशों की पीड़ा है। जाति की जगह कहीं नस्ल है कहीं दूसरे रूप में समुदाय, धर्म के टकराव कंबिनेशन में अंतर हो सकता है पर समस्या हर कहीं एक सी है। बाजार का आतंक एवं संस्कृति का संकट हर जगह है। संस्मरण की निजता से उपन्यास की व्यापकता इसी जरूरत की पूर्ति है। यहाँ यह भी है कि परिवर्तन की समकालीन प्रक्रिया में व्यक्ति एवं संस्कृति का विलोपीकरण कर रहा है, यथार्थ गल्प बन रहा है। काशी का अस्सी यूटोपिया की बजाए एंटी यूटोपिया है। स्वाभाविक है कि इसमें उपन्यास की पारंपरिक धारणाएँ बदल गई है। आज जटिलताएँ इतनी ज्यादा हैं कि उसे विश्लेषणात्मकता में नहीं पकड़ा जा सकता है। जीवन के उद्वेलनों के कारण ही यहाँ विधागत प्रतिमानों का घालमेल हो रहा है।
काशी का अस्सी में भाषा का सवाल भी महत्वपूर्ण है। इन संदर्भ में यहाँ आभिजात्य के प्रति लोक का प्रतिरोध है। एक असहमत-उद्वेलित समाज में नफासत की उम्मीद नहीं की जा सकती। समाज जैसा होगा वैसा ही उसका मुहावरा होगा। इससे मुख नहीं मोड़ा जा सकता।
लोक-कला रूपों का प्रयोग उपन्यास की विशिष्टता है। वर्चस्वशाली संस्कृति सिर्फ बाजार ही नहीं बनाती वरन् अपनी भाषा, संस्कृति, कला-रूपों को भी आरोपित करती है, काशी का अस्सी इसका प्रतिरोधी है। यहाँ विरहा-दंगल जैसी लुप्त होती कला-रूप का प्रयोग इसी का उदाहरण है।
इन सबके साथ उपन्यास की आक्रामक व्यंग्यात्मकता भी उल्लेखनीय है। जो लोगों के रोष एवं सांस्कृतिक टकराव को बखूबी व्यक्त करती है-
अगर चाहने से हो तो पिछले खाड़ी-युद्ध के दिनों में अस्सी चाहता था कि अमरीका का 'व्हाइट हाउस' इस मुहल्ले का 'सुलभ शौचालय' हो जाए ताकि उसे 'दिव्य निपटान' के लिए 'बाहरी अलंग' अर्थात् गंगा पार न जाना पड़े... मगर चाहने से क्या होता है?